वास्तव में एग्जिट पोल एक तरह से मनगढ़ंत, फरेब और झूठा है

Actually the exit poll is a kind of fabricated, fable and false

अरुण कुमार चौधरी,

आज पूरे दिन सोशल मीडिया पर एग्जिट पोल पर काफी चर्चा जमकर हो रही है। जहां देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार इसे एक प्रायोजित एग्जिट पोल कह रहे हैं, इसमें से एक वरिष्ठ पत्रकार अभिसार शर्मा ने खुलेआम कहा कि सभी एग्जिट पोल करने वाले एजेंसियों को पीएमओ के तरफ से फरमान जारी किया गया था कि एनडीए गठबंधन को three hundred से भी ज्यादे सीट दिखाया जाय। जिससे कि विपक्ष का मनोबल टूट जाय और वास्तविक चुनाव परिणाम अपनी ओर किया जाय। श्री शर्मा ने आगे कहा कि एग्जिट पोल के दो एजेसियां खुलेआम लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रबंधन में करते हैं तथा एक एजेसी का तो सारा का सारा आदमी आरएसएस समर्थित कैडर है।

इसके साथ-साथ दूसरे पत्रकार प्रसून वाजपेयी ने कहा जमीनी रिपोर्ट के अनुसार भाजपा किसी भी हालत में 163 सीट से ज्यादे नहीं आ सकती है। श्री वाजपेयी ने आगे कहा कि इस पूर एग्जिट पोल में पैसे का पूरा खेल हुआ है। इसी के संबंध में ज़मीनी स्तर पर चुनावी प्रक्रिया को कवर करने वाले ऐसे तमाम पत्रकार हैं जिनकी चुनाव परिणामों पर अपनी अलग-अलग राय है, लेकिन ये लोग भी एग्ज़िट पोल्स पर बहुत भरोसा नहीं कर पा रहे हैं.

श्रवण शुक्ल कहते हैं कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में ही कितना अंतर है, जो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि किसी एक सर्वमान्य प्रक्रिया का पालन इसमें नहीं किया जाता है. श्रवण शुक्ल की मानें तो सपा-बसपा-गठबंधन जिस तरह से ऊपरी स्तर पर दिख रहा था, उस हिसाब से ज़मीन पर नहीं दिखा.श्रवण शुक्ल साफ़ कहते हैं कि एग्ज़िट पोल्स के नतीजों को यूपी के संदर्भ में बिल्कुल नहीं माना जा सकता. वो कहते हैं, “ये पूरा खेल सिर्फ़ चैनलों की टीआरपी का है, इसके अलावा कुछ नहीं. 2007. 2012 और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से पूर्ण बहुमत वाली सरकारें बनी हैं, उसने सभी चुनावी सर्वेक्षणों को ख़ारिज किया है.

यहां तक कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजों पर बहुत भरोसा किया जाए.” इसके अलावे वरिष्ठ पत्रकार श्री आशुतोष ने कहा कि एग्जिट पोल एक कमाई का बहुत बड़ा धंधा है। इस एग्जिट पोल से समाचार चैनल वाले three दिनों के अंदर करोड़ों रूपये कमाते हैं, जबकि एक एग्जिट पोल बनाने में मात्र 50-1.5 करोड़ रूपये लगते हैं। इसी क्रम में पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश के ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों और लोकसभा चुनावों के एग्ज़िट पोल भी वास्तविकता से काफ़ी दूर रहे हैं इसलिए इस बार ये कितने सही होंगे, इस पर विश्वास करना मुश्किल है.

लखनऊ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के राजनीतिक संपादक सुभाष मिश्र कहते हैं कि ज़मीन पर जो भी रुझान देखने को मिले हैं उन्हें देखते हुए सीटों की ये संख्या क़तई वास्तविक नहीं लग रही है. वो कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में जिस तरीक़े की जातीय और क्षेत्रीय विविभता है, मतदान के तरीक़ों और रुझानों में जितनी विषमता है, उनके आधार पर इस तरह से सीटों का सही अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल होता है. ज़्यादातर सर्वेक्षण बीजेपी के पक्ष में एकतरफ़ा नतीजा दिखा रहे हैं, जो संभव नहीं लगता है. जितना मैंने यूपी में ज़मीन पर देखा और समझा है, उसके अनुसार कह सकता हूं कि गठबंधन अच्छा करेगा.

“हालांकि कुछ सर्वेक्षणों में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को उत्तर प्रदेश में काफ़ी आगे दिखाया गया है लेकिन ज़्यादातर में या तो बीजेपी के साथ उसका कड़ा संघर्ष देखने को मिल रहा है या फिर बीजेपी को काफ़ी आगे दिखाया जा रहा है. सुभाष मिश्र कहते हैं कि हाल ही में तीन राज्यों में जो चुनाव हुए थे, ज़्यादातर एग्ज़िट पोल वहां भी सही नहीं निकले, इसलिए बहुत ज़्यादा भरोसा करना ठीक नहीं है. यही नहीं, ज़्यादातर विश्लेषक ख़ुद एग्ज़िट पोल्स के बीच आ रही विविधता की वजह को भी इनकी प्रक्रिया और इनके परिणाम पर संदेह का कारण मानते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार अमिता वर्मा अब तक कई चुनावों को कवर कर चुकी हैं. वो कहती हैं, “चुनावी सर्वेक्षण शुरू में जो आते थे, वो सत्यता के काफ़ी क़रीब होते थे. उसकी वजह ये थी कि उनमें उन प्रक्रियाओं का काफ़ी हद तक पालन किया जाता था जो कि सेफ़ोलॉजी में अपनाई जाती हैं. अब यदि इनके परिणाम सही नहीं आ रहे हैं तो उसकी एक बड़ी वजह ये है कि ज़्यादातर सर्वेक्षण प्रायोजित होते हैं और ऐसी स्थिति में सही परिणाम आने की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए.” अमिता वर्मा भी ये मानती हैं कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें जो भी देखने को मिला है वो इन एग्ज़िट पोल्स में नहीं दिख रहा है. उपरोक्त बातों से स्पष्ठ हो गया है कि एग्जिट पोल एक तरह से मनगढ़त, फरेब और झूठा है।

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